Nainam chhindati shstrani - 1 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 1

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 1

इस उपन्यास का लेखन क्यों और कैसे ?

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इस बात को अब तो लगभग 24 वर्ष हो गए हैं जब मैं ‘इसरो’ की सरकारी योजना के अंतर्गत ‘अब झाबुआ जाग उठा’ सीरियल का लेखन कर रही थी | यह पुस्तककार में जयपुर के प्रतिष्ठित ‘बोधि प्रकाशन ‘से 2016 में प्रकाशित हो चुका था जो आज तक अमेज़ोन पर उपलब्ध है |गुजरात साहित्य परिषद में इसका विमोचन भी बड़े जोशोखरोश से हुआ कारण ? यह मेरा पहला ऐसा उपन्यास था जिससे मुझे थोड़ा संतोष था और इससे पूर्व मैं इसका शीर्षक गीत व लगभग 68/70 एपीसोड्स के संवाद से लेकर कथानक आदि लिख चुकी थी जिनका सीरियल रूप में भोपाल व झाबुआ के लिए प्रसारण भी हो चुका था |

‘मातृभारती’ पर मुझे बहुत समृद्ध पाठक मिले, मैं अपने सभी पाठकों को हृदय से धन्यवाद देना चाहती हूँ | साथ ही अपने पाठकों की रुचि देखकर मैं इसे आप सब तक पहुँचाना चाहती थी| तकलीफ़ यह थी कि मेरे पास इसकी पी.डी.एफ़ फ़ाइल थी जो खुल ही नहीं रही थी | प्रकाशक बहुत सहृदय हैं, उन्होंने इस उपन्यास की ‘वर्ड फ़ाइल’तलाशने का बहुत प्रयास किया लेकिन नहीं मिल सकी | जो उनके पास उपलब्ध थी वे मुझे भेज ही चुके थे |

इस उपन्यास के बारे में ‘हिडिंबा’, ’योद्धा’ की स्नेहमयी समृद्ध लेखिका डॉ. नताशा अरोरा, ’राही रैंकिंग’ के जन्मदाता सुप्रतिष्ठित रचनाकार श्री सुबोध गोविल जी, सुप्रसिद्ध कहानी, व कविता पर लगातार लेखन करने वाली मेरी प्रिय मित्र सुश्री मधु सोसि जी ने लिखा है | मैं इन सबके प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करती हूँ और अब अपने पाठकों को स्नेहपूर्वक इस उपन्यास को पढ़कर इसके बारे में उनके बहूमूल्य विचारों को जानने के लालच से मैं यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ | आशा है, आप सबकी प्रतिक्रियाओं से मैं लाभान्वित हो सकूँगी |

इसके साथ यात्रा करते हुए आप समझ जाएँगे कि यह उपन्यास क्यों लिखा गया ?उपन्यास अब अपने स्नेही पाठकों के हाथों में –

 

नैनं छिंदन्ती शस्त्राणि

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1 –

एक ठहाका हवा को चीरता हुआ उसके मन की खिड़की में प्रवेश कर गया | उनके ठहाके ख़ुशबू की भाँति वातावरण को सुगन्धित कर जाते थे | बिना कुछ बताए सामने वाले का चेहरा पढ़कर अपने कई प्रश्न एक साथ परोस देने वाले और उससे उत्तर की अपेक्षा करने वाले ऐसे उसके परम मित्र सान्याल अचानक नहीं रहे | दु:ख हुआ किन्तु सुख की एक क्षीण रेखा भी उसके भीतर उतर गई ---अनेकों झंझावातों और पीड़ाओं से गुज़रने के उपरांत हर पल को ठहाकों से भर देने वाले वे मित्र बिना किसी कष्ट के, बिना किसी की सेवा लिए आराम से जीवन के अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ गए थे |

न जाने क्यों उसके अपने घर के बाहर के उस विशाल वृक्ष के पत्ते सूखे लगने लगे थे, यकायक उस वृक्ष की सुगन्धित, शीतल बयार का थम जाना क्या उन मित्र से संबंधित हो सकता था ?वर्षों से वह वृक्ष उसके घर के सामने हर-भरा लहराता रहता था | वह नहीं जानती वृक्ष किस जाति का, किस धर्म अथवा किस राशि का था जिसमें से सुगन्धित, शीतल पवन लहराती उसके कमरे में प्रवेश करती, ज़िंदा रहने का एहसास कराती रहती | इससे पूर्व कभी उसका ध्यान वृक्ष पर इस प्रकार नहीं गया था | उसने कभी इसको वस्त्रहीन नहीं देखा था |

आँधी, तूफ़ान आते, पतझड़ का मौसम भी यह झेलता परंतु तीस वर्षों के लंबे समय में उसने इस प्रकार कभी उसको निर्वस्त्र नहीं देखा | शनै: शनै: वृक्ष की जड़ों में दीमक लग गई और एक दिन वह पूरी तरह भुरभुरा गया | वृक्ष के रहने से उसे मित्र की ज़िंदादिली का एहसास हर पल बना रहता | अब वह मुरझाने सी लगी | उसके पति सारांश पर भी उनके न रहने का प्रभाव पड़ा था अन्यथा जब वे पत्नी के साथ बैठते थे पत्नी के मित्र की प्रशंसा सुन-सुनकर थक जाते थे यद्यपि उनके खुद के भी मित्र थे वे ! अब दोनों के बीच एक मौन पसरने लगा था | उनसे जुड़े सभी मित्रों ने कभी सोचा ही नहीं था कि उनके न रहने से मन के भीतर और बाहर एक नीरवता पसर सकती है ! कोई इतना प्रभाव छोड़ सकता है क्या ?

“तुम्हारे चेहरे पर बारह क्यों बजे रहते हैं ? ताज़गी तो दिखाई ही नहीं देती ! कुछ कसैला घोलकर पी लेती हो क्या ?यार! जी लो बहुत दिन नहीं मिलेंगे|”

इस प्रकार के ताने–मलाने वो देते ही रहते थे जैसे उन्हें सबने अधिकार दे दिया हो कि वे कुछ भी कहते रहें | मज़े की बात यह है कि कोई उनके कहने का बुरा ही नहीं मानता था | इसी प्रकार किसी संभाषण के बाद एक दिन वह दो पल बाद ही अपनी ड्रॉअर से एक कागज़ निकाल कर बोले थे ;

जीवन उपहार है

उपहार पाकर प्रसन्नता से दमकता मुख

नैसर्गिक आत्मिक सौंदर्य

मुख पर फैला उल्लास

आलोकित इंद्रियाँ

ताज़गी, मुस्कान व आनंद की छलकन

हर पल एक खुशनुमा बाँकपन

कैसे भीग जाता है मन !!

समिधा के चेहरे पर दृष्टि चिपका कर वे बोले थे, 

“ देखा कितना सुंदर लिखा है !”

“अरे आप तो कविता करने लगे ! बहुत सुंदर ! वैसे आप कविता कब से करने लगे?”

“ मैं और कविता ?तुम्हारे शब्द चुरा कर इधर-उधर करके तुम्हारे ही सामने परोस दिए और तुम पहचान ना सकीं ! कहाँ खोई रहती हो आजकल? भाई हँसती हुई कविताएँ लिखा करो| बाँकपन की कविताएँ लिखा करो और हँसती भी रहा करो | ज़िंदगी नन्ही सी है ! इत्ती छोटी सी !”

एक चुटकी हवा में उड़ा कर मानो वे ज़िंदगी के हर गम से निज़ात पा लेते !

वह प्रयत्न करती है, बेकार की बातें याद ना करे, ना देखे पीछे मुड़कर उन रास्तों को, उन चाहतों को, उन पीड़ाओं को और उन लोगों को जो बिना कुछ कहे जिंदगी से यूँ ही विदा हो जाते हैं केवल उनकी छुअन भर मन की अलंगनी पर टँगी रह जाती है |